श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस् थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ (१)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे भरतवंशी अर्जुन! परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करने का भाव(निर्भयता), अन्त:करण की शुद्धता का भाव(आत्मशुद्धि), परमात्मा की प्राप्ति के ज्ञान में दृड़ स्थित भाव (ज्ञान-योग), समर्पण का भाव (दान), इन्द्रियों को संयमित रखने का भाव (आत्म-संयम), नियत-कर्म करने का भाव (यज्ञ-परायणता), स्वयं को जानने का भाव(स्वाध्याय), परमात्मा प्राप्ति का भाव (तपस्या)और सत्य को न छिपाने का भाव (सरलता)। (१)
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ (२)
भावार्थ : किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव(अहिंसा), मन और वाणी से एक होने का भाव(सत्यता), गुस्सा रोकने का भाव(क्रोधविहीनता), कर्तापन का अभाव (त्याग), मन की चंचलता को रोकने का भाव (शान्ति), किसी की भी निन्दा न करने का भाव(छिद्रान्वेषण), समस्त प्राणीयों के प्रति करुणा का भाव (दया), लोभ से मुक्त रहने का भाव(लोभविहीनता), इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्त न होने का भाव(अनासक्ति), मद का अभाव (कोमलता), गलत कार्य हो जाने पर लज्जा का भाव और असफलता पर विचलित न होने का भाव (दृड़-संकल्प)। (२)
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ (१)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे भरतवंशी अर्जुन! परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करने का भाव(निर्भयता), अन्त:करण की शुद्धता का भाव(आत्मशुद्धि), परमात्मा की प्राप्ति के ज्ञान में दृड़ स्थित भाव (ज्ञान-योग), समर्पण का भाव (दान), इन्द्रियों को संयमित रखने का भाव (आत्म-संयम), नियत-कर्म करने का भाव (यज्ञ-परायणता), स्वयं को जानने का भाव(स्वाध्याय), परमात्मा प्राप्ति का भाव (तपस्या)और सत्य को न छिपाने का भाव (सरलता)। (१)
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ (२)
भावार्थ : किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव(अहिंसा), मन और वाणी से एक होने का भाव(सत्यता), गुस्सा रोकने का भाव(क्रोधविहीनता), कर्तापन का अभाव (त्याग), मन की चंचलता को रोकने का भाव (शान्ति), किसी की भी निन्दा न करने का भाव(छिद्रान्वेषण), समस्त प्राणीयों के प्रति करुणा का भाव (दया), लोभ से मुक्त रहने का भाव(लोभविहीनता), इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्त न होने का भाव(अनासक्ति), मद का अभाव (कोमलता), गलत कार्य हो जाने पर लज्जा का भाव और असफलता पर विचलित न होने का भाव (दृड़-संकल्प)। (२)
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ (३)
भावार्थ : ईश्वरीय तेज का होना, अपराधों के लिये माफ कर देने का भाव (क्षमा), किसी भी परिस्थिति में विचलित न होने का भाव (धैर्य), मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव (पवित्रता), किसी से भी ईर्ष्या न करने का भाव और सम्मान न पाने का भाव यह सभी तो दैवीय स्वभाव (गुण)को लेकर उत्पन्न होने वाले मनुष्य के लक्षण हैं। (३)
भावार्थ : ईश्वरीय तेज का होना, अपराधों के लिये माफ कर देने का भाव (क्षमा), किसी भी परिस्थिति में विचलित न होने का भाव (धैर्य), मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव (पवित्रता), किसी से भी ईर्ष्या न करने का भाव और सम्मान न पाने का भाव यह सभी तो दैवीय स्वभाव (गुण)को लेकर उत्पन्न होने वाले मनुष्य के लक्षण हैं। (३)
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥ (४)
भावार्थ
: हे पृथापुत्र! पाखण्ड, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता यह
सभी आसुरी स्वभाव (गुण) को लेकर उत्पन्न हुए मनुष्य के लक्षण हैं। (४)
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥ (५)
भावार्थ
: दैवीय गुण मुक्ति का कारण बनते हैं और आसुरी गुण बन्धन का कारण माने
जाते है, हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवीय गुणों से
युक्त होकर उत्पन्न हुआ है। (५)
(आसुरी स्वभाव वालों के लक्षण)
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु ॥ (६)
भावार्थ
: हे अर्जुन! इस संसार में उत्पन्न सभी मनुष्यों के स्वभाव दो प्रकार के
ही होते है, एक दैवीय स्वभाव और दूसरा आसुरी स्वभाव, उनमें से दैवीय गुणों
को तो विस्तार पूर्वक कह चुका हूँ, अब तू आसुरी गुणों को भी मुझसे सुन। (६)
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ (७)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य यह नही जानते हैं कि क्या करना चाहिये और क्या
नही करना चाहिये, वह न तो बाहर से और न अन्दर से ही पवित्र होते है, वह न
तो कभी उचित आचरण करते है और न ही उनमें सत्य ही पाया जाता है। (७)
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥ (८)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत् झूठा है इसका न तो कोई आधार
है और न ही कोई ईश्वर है, यह संसार बिना किसी कारण के केवल स्त्री-पुरुष
के संसर्ग से उत्पन्न हुआ है, कामेच्छा के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नही है।
(८)
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥ (९)
भावार्थ
: इस प्रकार की दृष्टि को स्वीकार करने वाले मनुष्य जिनका आत्म-ज्ञान नष्ट
हो गया है, बुद्धिहीन होते है, ऎसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य केवल विनाश
के लिये ही अनुपयोगी कर्म करते हैं जिससे संसार का अहित होता है। (९)
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प् रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ (१०)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कभी न तृप्त होने वाली काम-वासनाओं के अधीन,
झूठी मान-प्रतिष्ठा के अहंकार से युक्त, मोहग्रस्त होकर ज़ड़ वस्तुओं को
प्राप्त करने के लिये अपवित्र संकल्प धारण किये रहते हैं। (१०)
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ (११)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य जीवन के अन्तिम समय तक असंख्य चिन्ताओं के
आधीन रहते है, उनके जीवन का परम-लक्ष्य केवल इन्द्रियतृप्ति के लिये ही
निश्चित रहता है। (११)
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥ (१२)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य आशा-रूपी सैकड़ों रस्सीयों से बँधे हुए
कामनाओं और क्रोध के आधीन होकर इन्द्रिय-विषयभोगों के लिए अवैध रूप से धन
को जमा करने की इच्छा करते रहते हैं। (१२)
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ (१३)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि आज मैंने इतना धन प्राप्त
कर लिया है, अब इससे और अधिक धन प्राप्त कर लूंगा, मेरे पास आज इतना धन है,
भविष्य में बढ़कर और अधिक हो जायेगा। (१३)
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ (१४)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि वह शत्रु मेरे द्वारा मारा
गया और उन अन्य शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, मैं ही भगवान हूँ, मैं ही
समस्त ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही सबसे
शक्तिशाली हूँ, और मैं ही सबसे सुखी हूँ। (१४)
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ (१५)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि मैं सबसे धनी हूँ, मेरा
सम्बन्ध बड़े कुलीन परिवार से है, मेरे समान अन्य कौन है? मैं यज्ञ करूँगा,
दान दूँगा और इस प्रकार मै जीवन का मजा लूँगा, इस प्रकार आसुरी स्वभाव
वाले मनुष्य अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं। (१५)
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ (१६)
भावार्थ
: अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर मोह रूपी जाल से बँधे हुए
इन्द्रिय-विषयभोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य महान् अपवित्र नरक
में गिर जाते हैं। (१६)
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ (१७)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले स्वयं को ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी मनुष्य धन और
झूठी मान-प्रतिष्ठा के मद में लीन होकर केवल नाम-मात्र के लिये बिना किसी
शास्त्र-विधि के घमण्ड के साथ यज्ञ करते हैं। (१७)
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ (१८)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य मिथ्या अहंकार, बल, घमण्ड, कामनाओं और क्रोध
के आधीन होकर अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमात्मा की निन्दा
करने वाले ईर्ष्यालु होते हैं। (१८)
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ (१९)
भावार्थ
: आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं,
ऎसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही
गिराता रहता हूँ। (१९)
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥ (२०)
भावार्थ
: हे कुन्तीपुत्र! आसुरी योनि को प्राप्त हुए मूर्ख मनुष्य अनेकों जन्मों
तक आसुरी योनि को ही प्राप्त होते रहते हैं, ऎसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य
मुझे प्राप्त न होकर अत्यन्त अधम गति(निम्न योनि) को ही प्राप्त होते हैं।
(२०)
(शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा)
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ (२१)
भावार्थ
: हे अर्जुन! जीवात्मा का विनाश करने वाले "काम, क्रोध और लोभ" यह तीन
प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं, इसलिये इन तीनों को
त्याग देना चाहिए। (२१)
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ (२२)
भावार्थ
: हे कुन्तीपुत्र! जो मनुष्य इन तीनों अज्ञान रूपी नरक के द्वारों से
मुक्त हो जाता है, वह मनुष्य अपनी आत्मा के लिये कल्याणकारी कर्म का आचरण
करता हुआ परम-गति (परमात्मा) को प्राप्त हो जाता है। (२२)
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ (२३)
भावार्थ
: जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर
अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है, वह मनुष्य न
तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न
परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है। (२३)
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ (२४)
भावार्थ
: हे अर्जुन! मनुष्य को क्या कर्म करना चाहिये और क्या कर्म नही करना
चाहिये इसके लिये शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण होता है, इसलिये तुझे इस
संसार में शास्त्र की विधि को जानकर ही कर्म करना चाहिये। (२४)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥
इस
प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में दैवासुर संपद्विभाग-योग नाम का सोलहवाँ अध्याय
संपूर्ण हुआ ॥
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥