हस्तौ दानविवर्जितो श्रुतिपटौ सारश्रुति द्रोहिणौ
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ ।
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ ।
अन्यायार्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्गं शिरः
रे रे जम्बुक! मुञ्च मुञ्च सहसा नीचस्य निन्द्यं वपुः ॥
चाणक्य नीति
જેના બંન્ને હાથ દાન વિહીન છે, બન્ને કાન સત્શ્રવણ થી પરાંગમુખ છે, નેત્ર સજ્જનો નું અવલોકન કરતા નથી, પગ તીર્થો માં ગયેલા નથી, જે અનન્યાય થી ધન કમાઈને પોતાનું ઉદરભરણ કરી ગર્વ થી પોતાનું માથું ઊંચું રાખી ફરતો રહે છે. હે શિયાળ જેવા નીચ! તું આ મનુષ્યના શરીર ને છોડી દે.
जिसके दोनों हाथ दान विहीन हैं , दोनों कान विद्याश्रवण से पराङ्मुख हैं नेत्र सज्जनों का दर्शन नहीं करते और पैर तीर्थों का पर्यटन नहीं करते। जो अन्याय से अर्जित धन से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं , ऐसे मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऐ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड़ दे।
जिसके दोनों हाथ दान विहीन हैं , दोनों कान विद्याश्रवण से पराङ्मुख हैं नेत्र सज्जनों का दर्शन नहीं करते और पैर तीर्थों का पर्यटन नहीं करते। जो अन्याय से अर्जित धन से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं , ऐसे मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऐ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड़ दे।
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